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अहिंसामूर्ती भगवान महावीर
 

श्री अनिल जैन

 

समग्र देश भगवान महावीर जयन्ती उत्साहपूर्वक मनाने जा रहा है। अहिंसा, संयम एवं तपोमय आदर्श जीवन के प्रत्येक, भगवान महावीर को इस संतप्त विश्व में स्मरण कर, उनके जीवनादर्शों के चिंतन एवं पालन की जीतनी आवश्यकता आज उपस्थिति हुई है, उतनी संभवत: पहले कभी नहीं रही होगी। इसलिए आज हम पुन:, हमारे सुंदर अतीत की इस परम विभूति की गौरव -गाथा गाकर, अपने राष्टीय व्यक्तित्व को टटोलें और पुन: उनके मंगल मार्ग पर चलने का संकल्प करें।

भारत में श्रमण और वैदिक, ये दो परम्पराएं बहुत प्राचीनकाल से चली आ रही हैं। इनका अस्तित्व ऐतिहासिक काल से आगे प्राग्-ऐतिहासिक काल में भी जाता है। भगवान ऋषभ प्राग्-ऐतिहासिक काल में हुए थे। वे जैन परम्परा के आदि तीर्थकर थे और धर्म-परम्परा के भी प्रथम प्रवर्तक थे। भगवान महावीर चैबीसवें और इस युग के अंतिम तीर्थकर के रूप में मान्य हैं।

भगवान महावीर का जन्म-स्थान, गंगा के दक्षिण में और पटना से 27 मील उत्तर में, आया बसाड़ नाम का गांव है। वहां क्षत्रिय कुंड और कुण्डपुर नाम के दो उपनगर थे। ईसा से 599 वर्ष पूर्व, चैत्रा शुक्ला त्रायोदशी के पावन दिन, भगवान महावीर ने पिता सिद्वार्थ एवं माता महारानी त्रिशला के यहाँ जन्म लिया।

तीस वर्ष की योवनावस्था में, महावीर पूर्ण संयमी बनकर श्रमण बन गये। दीक्षित होते ही उन्हें मन: पर्यव ज्ञान हो गया। दीक्षा के बाद, महावीर प्रभु ने घोर तपस्या एवं साधना की। उनके महान उपसर्गों को अपूर्व क्षमता भाव से सहन किया। ग्वालों का उपसर्ग, संगम देव के कष्ट, शूलपाणि यक्ष का परिषह, चण्डकौशिक का डंक, व्यन्तरी के उपसर्ग, भगवान महावीर की समता एवं सहनशीलता के असाधारण उदाहरण हैं। साडे बारह वर्ष की अपूर्व साधना के पश्चात प्रभु महावीर को केवल ज्ञान की उपलब्धि हुई।

भगवान महावीर को केवल ज्ञान उत्पन्न होते ही, देवगणों ने पंचदव्यों की वृष्टि की और सुन्दर समवसरण की रचना की। भगवान के समवशरण में आकाश मार्ग से देव-देवियों के समुदाय आने लगे। प्रमुख पंडित इन्द्रभूति को जब मालूम हुआ, कि नगर के बाहर सर्वज्ञ महावीर आये हैं और उन्हीं के समवसरण में, ये देव गण जा रहें हैं, तो उनके मन में अपने पांडित्य का अहंकार जाग्रत हो उठा। वे भगवान के अलौकिक ज्ञान की परख करने और उनको शास्त्रार्थ में पराजित करने की भावना से समवसरण में आये।

भगवान की शांत मुद्रा एवं तेजस्वी मुख मण्डल को देखकर तथा उनकी अमृत वाणी का पान करने से इन्द्रभुति के सब अन्तरंग संशयों का छेदन हो गया और वे उसी समय अपने शिष्यों सहित भगवान के चरणों मे दीक्षित हो गये। इसी प्रकार अन्य दस विद्वान भी अपनी शिष्य मण्डली के साथ उसी दिन दीक्षित हुए। से ग्यारह प्रमुख शिष्य ही गणधर कहलाये।

भगवान महावीर ने अहिंसा, संयम, तप, पांच महाव्रत, पांच समिति, तीन गुप्ति, अनेकान्त, अपरिग्रह एवं आत्मवाद का उपदेश दिया। अवतारवाद की मान्यता का खण्डन करते हुए, उत्रारवाद प्रस्तुत किया। यज्ञ के नाम पर होने वाली पशु एवं नरबलि का घोर विरोध किया तथा सभी वर्ग के सभी जाति के लोगों को धर्मपालन का अधिकार बतलाया। जाति-पांति व लिंग के भेदभाव को मिटाने हेतु उपदेश दिये। चंदनबाला प्रकरण महावीर की स्त्री जाति के प्रति संवेदना का विशेष उदाहरण है।

म्हावीर ने 30 वर्षों तक, तीर्थकर के रूप में विचरण कर, जैन धर्म का सदुपदेश दिया। आपका अंतिम चातुर्मास पावापुरी में हुआ। जब वर्षाकाल का चौथा मास चल रहा था, कार्तिक कृष्णा अमावस्या के दिन, भगवान ने रात्रि में चार अ़द्याति कर्मों का क्षय किया और पावापुरी में परिनिर्वाण को प्राप्त हुए। पावापुरी बिहारशरीफ के सन्निकट है। यहां पर सुन्दर एवं मनोरम जल-मंदिर है। जैन लोग इसे भगवान महावीर की पुण्यभूमि मानते हैं और इस पवित्र तीर्थभूमि का दर्शन कर अपने जीवन को कृतकृत्य समझते हैं। निर्माण के समय भगवान की आयु 72 वर्ष थी।

भगवान महावीर प्रतिशोधात्मक हिंसा, प्रतिकारात्मक हिंसा और आशकाजनित हिंसा से उपरत थे, अनर्थ हिंसा की तो बात ही कहां? भगवान महावीर अपने साधना काल में प्राय: मौन रहते थे। अधिकांश समय ध्सानस्थ रहते और अनाहार की तपस्या करते थे। वे अपने विशिष्ट साधना बल के आधार पर कैवल्य को प्राप्त हुए।

जन्म के पूर्व गर्भकाल में ही, महावीर ने अहिंसा को आत्मसात् कर लिया था। जैन साहित्य में उनके गर्भकाल का एक रोचक प्रसंग प्राप्त होता है। गर्भस्थ शिशु वद्र्वमान ने एक बार विचार किया कि, जब मैं मां के उदर में स्पंदन-कंपन करता हूँ, तो इससे मेरी माँ को कष्ट तो होता होगा। क्या ही अच्छा हो, कि मैं स्पंदन को बंद कर दूं, ताकि मेरी माँ को कष्ट ना हो। शिशु ने वैसा ही किया। शरीर को स्थिर कर लिया। मानो की कायगुत्ति और कायोत्सर्ग का प्रयोग किया हो। उधर मां त्रिशला ने अनुभव किया कि गर्भ का स्पंदन बंद हो गया। लगता है गर्भ मृत हो गया है। इस अनुमान ने माँ को शोक सरोवर में निमग्न कर दिया।

कुछ समय बाद गर्भस्थ शिशु ने विशिष्ट ज्ञान से माँ की स्थिति को देखा तो पता चला की काम तो उल्टा ही हो गया। किया तो अच्छे के लिए और हो गया कुछ अन्यथा। उसने पुनः स्पंदन शुरू किया तब माँ को पता चला कि गर्भ सुरक्षित है। वातावरण पुनः हर्षमय बन गया। उस समय गर्भस्थ शिशु ने चिंतन किया कि, मेरे स्पंदन बंद कर देने मात्र से माँ को इतना कष्ट हो सकता है, तो यदि मैं माँ-पिता की विद्यमानता में संन्यास का पथ स्वीकार करूंगा तो उन्हें कितना कष्ट होगा। इसलिए, मैं संकल्प करता हूँ, कि अपनी माता-पिता की विद्यमानता में, सन्यास स्वीकार नहीं करूंगा। यह प्रसंग प्रभु महावीर के गर्भकाल में होने वाली करूणा और मातृ-पितृ भक्ति का सशक्त और विरल उदाहरण हैं।

भगवान श्री महावीर का साधनाकाल घोर कस्टमय रहा था। शूलपाणि यक्ष और संगम देव ने एक-एक रात, प्रभु को बीस बीस मारणन्तिक कष्ट दिये। जिनको पढ़ने और सुनने मात्रा से काया कांप उठती है। शास्त्रों के अनुसार अभिनिष्कमण के बाद कई महीनों तक महावीर का देह को जहरीले मच्छर, कीड़े आदि नोचते रहे और उनका रक्त पीते रहे। लाढ़ देश के अनार्य लोगों ने भगवान को बहुत यातनाएं दी। मारा, पीटा शिकारी कुत्तों को पीछे लगाया। चण्ड कौशिक सांप ने काटा। ग्वालों ने कानों में किल्लियां ठोकी, पावों में आग जलाकर की खीर पकाईए फिर भी समता के सुमेरु महावीर अडोल और अकम्प रहे। ध्यानयोग, तपोयोग और अन्तमौन में लीन रहे। उनकी चेतना सदा अस्पर्श योग के शिखर पर प्रतिष्ठित रही। वे आत्म केंद्रित थे।

महावीर का पूरा साधना काल समता की साधना में बिता। उनके सामने अनुकूल और प्रतिकूल दोनों ही प्रकार के परीषह उत्पन्न हुए। उन्होंने अपनी सहिष्णुता के द्वारा उन परीषहों को निरस्त किया। उनकी समता की साधना थी।

शोध विद्वानों के मत से महावीर को कोई ऐसा दिव्य ज्ञान प्राप्त था, जिससे, वह अपने प्राण ऊर्जा को चेतना के किसी ऐसे बिन्दु पर केंद्रित कर लेते थे, जिससे शरीर पर घटित होने वाली किसी भी घटना का उनकी चेतना पर प्रभाव नहीं पड़ता था। वह गुण उनका विलक्षण अस्पर्शयोग ही था।

महावीर का सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत अनेकान्तवाद व स्यादवाद है। महावीर ने कहा है कि सभी मत और सिद्धांत पूर्ण सत्य या पूर्ण असत्य नहीं हैं। सापेक्ष दृष्टि से विचार करने पर सभी दृष्टिकोण सत्य ही प्रतीत होते हैं। इसलिएएअपने अपने मत या सिद्धांत पर अड़े रहने से संघर्ष बढ़ता है। आज जो वर्ग संघर्ष, अशान्ति और शास्त्रों का अन्धानुकरण बढ़ रहा है, उसे रोकने में अनेकान्त की दृष्टि, सहअस्तित्व की भावना महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है। महावीर ने कहा था, कि प्रत्येक इन्सान यदि अपने स्वरूप को पहचान ले, तो स्वयं भगवान बन जाता है। महावीर का भगवान सृष्टि संचालक नहीं हैं। महावीर का भगवान भगवत्ता को प्राप्त इन्सान है। महावीर ने स्वयं को पहचानने के तीन सूत्र दिये एकांत, मौन, और ध्यान। महावीर ने तप भी किया था, उपवास का तप। उपवास यानी, आत्मा में वास करना। भोजन छूटना उसका सहज परिणाम था। महावीर के लिए ध्यान और उपवास अलग अलग नहीं थे। ध्यान और उपवास दोनों का ही अर्थ है, आत्म केन्द्रित अवस्था।

महावीर की साधना हमारे जीवन की प्रयोगभूमि है। हम केवल महावीर के अनुयायी बनकर ना रहे जायें। स्वयं के भीतर ध्यान की ज्योति जलाकर महावीर को पुर्नजीवित करें। जो महावीर चले गये, वो लौटकर नहीं आ सकते। किंतु हमारे भीतर का महावीर जरूर जाग सकता हैं। महावीर ने कहा था, अप्पणा सच्चमे सेज्जां मेत्ति भूएसु कप्पए, स्वयं सत्य को खोजें और एवं सबके साथ मैत्री करें। महावीर ने कहा था जीओ और जीने दो। इस प्रकार का महावीर के पुराने सिद्धांतों कि आज भी उतनी ही आवश्यकता है, जितनी उस समय थी। आवश्यकता सिर्फ उन्हें गहराई से समझकर अपनाने की है।

महावीर जयंती का यही पवित्र प्रसंग निमित्त बने महावीर को जीने का, महावीर को जानने का, इसी से महावीर के मार्ग पर चलने में गौरव एवं प्रसन्नता की अनुभूति होगी।

मैं इस शुभ प्रसंग पर, आप सभी को महावीर जयन्ती के शुभ अवसर पर हार्दिक बधाई देता हूँ।

 

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लेखक : अनिल कुमार जैन
अध्यक्ष
अहिंसा फाउंडेशन
21, स्कीपर हाउस, 9, पूसा रोड़, नई दिल्ली, फोन : 9810046108

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